ईश्वर का अस्तित्व | Existence of God

ईश्वर का अस्तित्व एक मनोवैज्ञानिक सवाल: श्वर के अस्तित्व को लेकर शायद सबसे पुराना और सबसे कॉमन तर्क यह है कि क्या ईश्वर है या नहीं? और अगर ईश्वर नहीं है तो सब कुछ कैसे बना? जबकि विज्ञान कहता है कि सृष्टि की रचना स्वयं हुई है 

और सृष्टि के सवाल को लेकर हमें किसी ईश्वर की शरण में जाने की जरूरत नहीं। सृष्टि भौतिक नियमों के आधार पर अपने आप पनपी है और भगवान का अस्तित्व एक कोरी कल्पना मात्र है, जिसे हमारी मानसिकता में आस्था के लिए डाला गया है।

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उदाहरण के तौर पर इसे समझने की कोशिश करते हैं- मान लीजिए आप जहां रहते हैं वहां आस-पास कई निर्माण जरूर हुए होंगे, उन निर्माणों को देखकर क्या आपको कभी ऐसा लगा, कि क्या इन निर्माणों को ईश्वर ने बनाया है और क्या वो निर्माण ईश्वर का प्रमाण देते हैं? नहीं न। 

जबकि आपकी सहज सामान्य समझ यह होगी कि उन चीजों का निर्माण किसी न किसी इंसान ने ही किया है या होगा। और जो निर्माण हमें समझ नहीं आते, जिनका केवल हम अनुमान लगा सकते हैं वह प्रकृति के द्वारा होते हैं जैसे- पर्वत, नदी, वातावरण और ज्वालामुखी आदि

जिनको हम ईश्वर का स्वरूप मान लेते हैं जिससे हम ईश्वर में विश्वास और उसके प्रति आस्था की अवधारणा बना लेते हैं। तो प्रश्न उठता है कि इतने जीवों से भरी हमारी पृथ्वी, अपने आप जटिल संरचनाएँ कैसे बना सकती है?

हमारी पृथ्वी पर सृष्टि का निर्माण उसकी भौतिक उपस्थिति या परिस्थिति के कारण हुआ है। हमारी पृथ्वी के 23 1/2 डिग्री झुकी होने के कारण यहां मौसम में बदलाव आता है। समय-समय पर ठंडी और गर्मी पड़ती है जिससे पानी बर्फ बनता और गर्म होकर भाप बनता है, बारिश होती है और पेड़ पौधों के साथ जीवों के जीवन पनपने की परिस्थितियां बनतीं हैं। 

इन परिस्थितियों के कारण ही हमारी पृथ्वी पर एक कोशिकीय जीव की नींव से लेकर जीवों और पेड़ पौधों की विविधता में जीवन पनपा। जहां जीवों की भूख मिटाने और सांस लेने का इंतजाम पहले से था। 

विचार कीजिये! यह सब अपने आप में कितने कमाल की व्यवस्था है? क्या इसमें ईश्वर का अस्तित्वदिखाई देता है? प्रकृति ने सृष्टि में जीवन की जरूरतों के हिसाब को इस कदर गढ़ा है कि जीव अपना विकास स्वयं कर सके और अपनी जरूरतों के मुताबिक प्रकृति की दी गई वस्तुओं का उपभोग कर सके। 

तो इसका निष्कर्ष निकलता है कि प्रकृति ही ईश्वर है न कि धार्मिक पुस्तकों और ग्रंथो में वर्णित किए गए काल्पनिक पात्र। यह सिर्फ एक लेखक की कल्पना हो सकती है, जिनमें बताया गया है कि सृष्टि का निर्माण एकसृजनकर्ता द्वारा किया गया है मतलब सृजनकर्ता की रचना का परिणाम है। (मेरा यह तर्क धार्मिक दृष्टि से विवादास्पक हो सकता है, लेकिन यह मेरा चीजों को समझने का व्यक्तिगत दृष्टिकोण है।)

जब हम इस तरह के सवाल स्वयं से पूछते हैं कि भगवान क्या है? या भगवान कौन है? तो असल में हम उस शक्ति (ईश्वर के अस्तित्व) को खोजने का प्रयास करते हैं जिसने इस सृष्टि का निर्माण किया है। सही मायनों में यह शक्ति सभी जीवों के अंदर समाहित है और सभी को व्यवस्थित रूप से चलायमानबनाए रखती है। 

अगर किसी बच्चे से यह पूछा जाए कि इस धरती पर पानी क्यों है? तो उसका जवाब शायद यही हो सकता है, कि ताकि हम अपनी पानी की प्यास बुझा सके। एक बच्चा नहीं जानता कि इस धरती पर 97% पानी पीने लायक तो है ही नहीं। फिर उसी बच्चे से एक और सवाल पूछा जाए कि धरती पर पेड़-पौधे क्यों है? तो हो सकता है कि वह बोल दे कि पेड़-पौधों को भगवान ने बनाया है। कुछ ऐसी ही सोच हमारे पूर्वजों की थी।

हमारे पूर्वज जिन प्राकृतिक घटनाओं और विशेषताओं या विविधताओं के कारण को नहीं समझ पाते थे, पर उस घटना या विशेषता से उनकी जरूरतें पूरी हो जाती थीं। ऐसे में इस स्थिति को वे ईश्वर या परमपिता की कृपा मानते थे,

जिसने उनकी जरूरत की सारी चीजों को पूरा किया है। क्रम विकास में ऐसी ही मान्यताओं का विकास हुआ और सभ्यता के विकसित होने पर किसी ने इसे लिपिबद्ध कर ईश्वर, भगवान और परमपिता की अवधारणा को अस्तित्व में लाया। 

उसके बाद धार्मिक युग शुरू हुआ और अलग-अलग जगह पर अलग-अलग ईश्वर और भगवानों का जन्म होना आरंभ हुआ और हम इंसानों ने अपने विकास सिद्धान्त को समझने के बजाए अंधभक्ति, तर्क, वितर्क और कुतर्क करना शुरू कर दिया और यह क्रम आज भी जोरों-शोरों से जारी है और किया जा रहा है। सभी अपने धर्म को दूसरे से ऊंचा और पूर्ण बताते हैं और अपने धर्म के अनुयायियों की संख्या बढ़ाने का प्रयास करते हैं। 

लेकिन जैसे-जैसे सृष्टि में सभ्यता का विकास हुआ धार्मिक ग्रंथ किस्सो और कथाओं का भाग बनते चले गए ऐसा क्यों? क्योंकि धार्मिक ग्रंथों के पास ईश्वर को साबित करने के लिए कहानियां थीं और कहानियों को साबित करने के एक और कहानी। जिससे ईश्वर कौन है? की गुत्थी और उलझ गई। 

आज से करीब 150 साल पहले दिन के चार्ल्स डार्विन के प्राकृतिक चयन सिद्धांत (Natural selection theory) ने इस पहेली को सुलझा दिया। पूरे मानव इतिहास में मात्र यही एक ऐसा सिद्धांत है, जिसने समझाया कि बिना किसी सृजनकर्ता के बिना भी निर्माण कैसे वजूद में आ सकता है 

और सृष्टि कैसे खुद बिल्कुल प्रारंभिक एक कोशिकीय सरल जीवन में भी विकसित होकर लगभग 04 अरब वर्षों में एक प्राणी बना सकती है जो यह सवाल पूछ सके कि हम कौन हैं, कहां से आए हैं, यह ब्रह्मांड कैसे बना? औरहमें किसने बनाया?ईश्वरवादी इस सिद्धांत पर अक्सर एक सवाल उठाया करते। 

चार्ल्स डार्विन का “विकासवाद सिद्धांत” सरल जीवन को जटिल जीवन में बदल सकता है। लेकिन सरल जीवन से जटिल जीवन में बदलना भी तो एक व्यवस्था है। साथ ही ब्रह्मांड के वो नियम जिनके कारण ब्रह्मांड भी अस्तित्व में आया और वे प्रकृति के नियम जिनके कारण प्राकृतिक चयन सिद्धांत को अपना काम करने का अवसर मिलता है, एक व्यवस्था ही तो है 

अब प्रश्न उठता है कि ये व्यवस्था कैसे अस्तित्व में आई? यहां पर समझने वाली बात यह है कि जो लोग डार्विन के सिद्धांत को कम और बिग बैंग को सटीक मानते हैं, वह कभी इस विकासवाद का कोई और विकल्प नहीं दे पाते और ना ही प्रमाण प्रस्तुत कर पाते हैं। विकासवाद के अनेक सबूत होने के बावजूद भी अपनी मान्यताओं पर बने रहते हैं। 

और चार्ल्स डार्विन की खोजों से पहले ईश्वर को जीवन उत्पत्ति का रचयिता मानने के साथ मनुष्य को 84 लाख योनियों में श्रेष्ठ प्रजाति बताते हैं और अपनी गैर वैज्ञानिक (धार्मिक ग्रन्थों की) कहानियों का हवाला देते हैं।

अब एक सवाल और उठ खड़ा होता है कि वह ईश्वर (धार्मिक ग्रन्थों में वर्णित) ने पहले एक कोशिकीय जीवन की शुरुआत करने के बाद बाकी का काम प्रकृति पर छोड़ दिया और बिना उसका पालन पोषण किए बिना कहीं गायब हो गया? वहीं यह भी संभव हो सकता है कि पहले जीवन को अस्तित्व में आने के लिए किसी ईश्वर की जरूरतही ना पड़ी हो, पहला जीवन मात्र संयोग से जन्मा हो?

कैसे? डार्विन की थ्योरी ऑफ़ नेचुरल सिलेक्शन के बाद से विज्ञान में जीवन के बारे में जितने भी खोजें हुई है, उन्होंने विज्ञान को और भी मजबूत किया। आज हमने जीवन के लिए जरूरी सभी रासायनिक तत्वों को पहचान लिया, 

और यह भी सिद्ध हो चुका है उन सभी रासायनिक तत्वों का निर्माण पृथ्वी के आरंभिक अवस्था पर संभव था। इस जटिल जीवन का आरंभ आज से लगभग 4 अरब वर्ष पहले अस्तित्व में आया जो अपनी नकल बनाने में सक्षम था।

लेकिन फिर भी उन सभी रसायनों का आपस में इस तरह से व्यवस्थित होना था ताकि वह अपनी नकल बनाकर काबिल और स्वचालित जीवन का निर्माण हो सके, यह दुर्लभ संयोग था। संयोग मात्र से इतना जटिल जीवन अस्तित्व में आ सकता है। इस बात को स्वीकार करने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है, लेकिन संयोग कोई कल्पना नहीं है बस अभी हम इसे समझ नहीं पाए है। 

गणित की माने तो मुश्किल से मुश्किल संयोगों में से भी मुश्किल जैसा कुछ नहीं होता है। बस उसके घटित होने की संभावना बहुत कम होती है। गणित में संभावना का अर्थ होता है। किसी घटना को कितनी बार दोहराने से अपने वांक्षित लक्ष्य की संभावना से है। 

उदाहरण के तौर पर यदि किसी भी घटना को घटने की संभावना अगर 1 बटा 100 है तो इसका मतलब यह नहीं कि सफलता मिलने की संभावना 100वें प्रयास पर ही मिलेगी, हो सकता है कि पहले प्रयास में मिल जाए या 10वें प्रयास में मिल जाए या फिर हो सकता है 100वें प्रयास में ही मिले। प्रायिकता अधिकतम प्रयासों की संख्या को बताता है। 

जिसमें सफलता मिलने की संभावना है कुल मिलाकर प्रकृति ने जीवन को इस तरह से गढ़ा है जिसे समझ पाना आसान नहीं है और वैसे भी हम मनुष्यों की औसत आयु की मात्र 65 वर्ष ही है। जो कि प्रकृति के संयोगों को समझने के लिहाज से बेहद कम है।

हमारी पृथ्वी पर जीवन के सबसे प्राचीन साक्ष्य करीब 3.80 अरब वर्ष पहले के मिलते हैं जबकि पृथ्वी की उम्र लगभग 4.54 अरब वर्ष की मानी जाती है, मतलब जीवन पनपने के पहले अणुओं को विकसित होने में अच्छा समय मिला था और इन अणुओं ने पहले एक कोशिकीय जीव जीवन की रचना की लेकिन तथाकथित ईश्वर यहां गायब हो जाता है।

दोस्तों जीवन के बारे में हमारी समझ बस वैसी ही हो सकती है जैसा जीवन हम देखते हैं या जैसा जीवन हमारे सामने जन्म लेता है। जबकि हमारे देख पाने की हद से बाहर, जीवन हर जगह, हर समय पनप रहा है। 

पानी में परजीवी, मिट्टी में केंचुए अपने आप पनपते हैं कोई उनको पैदा नहीं करता। इससे साफ जाहिर है कि जीवन के निर्माण में ईश्वर का कोई योगदान नहीं है, यह सब प्रकृति की शक्ति द्वारा अपने आप ही होता है।

आज हम विकास के इस पड़ाव पर पहुंच चुके हैं कि हम कह सकते हैं कि इस प्रकृति में हम मानव बेहद खास हैं। यकीनन विकास के इस मामले में हमारी पृथ्वी बेहद खास है। अब आप चाहे तो यहां यह कह सकते हैं कि पृथ्वी को रहने लायक बनाने वाला कोई ईश्वर नहीं है क्योंकि ईश्वर का अस्तित्व का कोई साक्ष्य मिला ही नहीं है।

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जय हिन्द! जय भारत!

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